Tuesday, July 24, 2007

यात्राओं का महत्व

दीनानाथ मिश्र

जब कोई व्यक्ति अपनी सोच या विचारधारा को सामान्य जनमानस तक पहुंचाना चाहता है तो उसके सामने यात्रा सबसे विकल्प के रूप में उभरती है। यात्रा का महत्व जितना प्राचीन काल में था, उतना ही आज है। यात्रा का स्वरूप भले ही बदला हो लेकिन उद्देश्य आज भी वही है। सामाजिक तथा राजनैतिक दोनों तरह की यात्राएं जनचेतना फैलाने का ही कार्य करती हैं। इसमें यह जरूर निर्भर करता है कि यात्रा करने वाले की प्रतिभा और उद्देश्य क्या है। सामान्यत: वही यात्राएं सफल होती हैं जो तत्कालीन समाज की रूपरेखा से हटकर एक नई सोच और दिशा प्रदान करती हैं। जिन यात्राओं ने इतिहास रचा है, उस पर नजर डालें गौतम बुध्द, शंकराचार्य, महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, आडवानी और चन्द्रशेखर की यात्राएं महत्वपूर्ण हैं। इन सभी ने समानय विचारधारा से हटकर एक नई विचारधारा देने की कोशिश की थी। यात्रा सफल होने पर जन सैलाब उसी के अनुरूप सोचने लगती है और अंतत: अपने उद्देश्यों को पाने में सफल रहती है। भारत की यात्राओं पर राजीव कुमार ने भारत के तीन वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर, पॉयनियर के संपादक चंदन मित्रा व दीननाथ मिश्रा से बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश:
यात्राओं के बारे में दीनानाथ मिश्र जी का कहना है कि:

शिक्षा की दृष्टि से यात्रा का काफी महत्व है, क्योंकि यात्रा करने वाला अपनी यात्रा से कुछ न कुछ शिक्षा जरूर ग्रहण करता है। जो व्यक्ति जितना ज्यादा संवेदनशील होता है वो उतना ही उस यात्रा से लाभ लेकर लोगो को कुछ दे सकता है। उदाहरण के तौर पर महर्षि बाल्मीकि ने मैथून रत क्रौंच पक्षी को बहेलिया द्वारा मारते देख उन्हें बहुत गहरी संवेदना हुई और उन्होंने एक महाकाव्य ही रच डाला। बहुत से यात्री जब यात्रा पर जाते हैं तो अपनी अच्छी आदत के मुताबिक डायरी में सब कुछ नोट करते रहते हैं क्योंकि उन्हें अपनी स्मृति शक्ति पर विश्वास नही रहता है। लेकिन बहुत से लोग हैं, जिन्हें उस दृश्य से कोई मतलब नही रहता है। यात्रा करने वाले यात्री के पास निरीक्षण क्षमता रहनी चाहिए। व्यक्ति को विकासोन्मुख होना चाहिए। अगर उस समय उसका ध्यान कहीं और है तो वो यात्रा से वो कुछ भी ग्रहण नही कर पाएगा साथ में, उसका परिवार कैसा है यह भी महत्वपूर्ण है।

महात्मा गांधी ने अपने जीवन में कई यात्राएं की हैं। गांधी जी ने तो आजीवन यात्रा ही की है।उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ा और उनके अधिकार पुन: वापस दिलाये। फिरंगी काले लोगों पर कितना जुल्म ढाते थे, उनके अधिकारों के लिए उन्होंने अपने जीवन का काफी समय दक्षिण अफ्रीका में ही होम कर दिया।
गांधी की दांडी यात्रा एक सांकेतिक यात्रा थी। उन्होंने इस यात्रा में नाम मात्र का नमक बनाकर गोरों की सत्ताा को एक प्रकार से चुनौती दी थी। इस यात्रा ने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। गांधी जी जब यात्रा करते थे तब उनके साथ उनके सैकड़ों समर्थक व अनुयायी भी साथ चलते थे। वे जगह-जगह लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ जागरूक करते भी चलते थे। अंग्रेजों के खिलाफ गांधी जी के तेवर को देखकर न जाने कितने लोगों के अंदर देशभक्ति की भावना जग जाती थी।
और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने यात्रा को राजनैतिक हथियार बना लिया था। उन्होंने एक ऐसे विषय को लेकर यात्रा की जो अभूतपूर्व था। उन्होंने राम मंदिर बनाने के लिए जो रथ यात्रा निकाली उसे भारी जनसमर्थन मिला। जनता की समर्थन का तो अंदाजा ही नही लगाया जा सकता। उनकी रथ यात्रा का एक वाकया याद आता है कि पूर्वी प्रदेश में रात के साढ़े तीन बजे करीब 1500 लोग उनका स्टेशन पर खड़े होकर इंतजार कर रहे थे। उनकी इस यात्रा से जनता में ऐसा संदेश गया कि हजारों लोगों ने अपने शरीर के अंगो को काटकर रत्ता चंदन लगाया। उनकी यह यात्रा लोगों के दिलो दिमाग पर इस कदर छाया कि लोगों ने कई सालों तक इसे भूल नही पाये। तब यह पहला मौका था जब विपक्ष के यात्रा विरोधी तर्क को जनता ने खारिज कर दिया। तब सारे देश का ध्यान इस यात्रा में केन्द्रित हो गया था। लोग रथयात्रा के एक-एक पल की जानकारी लेने के लिए उत्सुक और तत्पर रहते थे। सुबह उठते ही सबसे पहले लोग अखबारों में यात्रा से संबंधित खबरे ही पढ़ते थे।
और, आडवाणी जी के जीवन की दूसरी प्रमुख यात्रा भारत सुरक्षा यात्रा थी। यह यात्रा आडवाणी जी ने 6 अप्रैल 2006 से यूपीए सरकार की नीतियों से उपजे आतंकवाद और तुष्टीकरण के खिलाफ था। आडवाणी जी की 35 दिवसीय यह यात्रा गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश होते हुए छत्तीसगढ़ तक हुई। इस यात्रा में लोगों ने तपती धूप की परवाह किए बगैर हजारों की संख्या में लोग उनकी यात्रा से जुड़े और इस यात्रा का भरपूर समर्थन किया। भारत सुरक्षा यात्रा के निर्धारित स्थानों पर पहुंचने से पूर्व ही लोग कतारबध्द होकर आडवाणी जी से मिलने के लिए लोग बहुत उत्सुक दिखाई दिए। लोगों में इस बात का अपार हर्ष था कि भाजपा यूपीए सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ देशव्यापी अभियान चलाकर जनजागरण कर रही है। आडवाणी जी ने नगर, शहर, कस्बों और गांव-गांव में जनसभा को संबोधित कर कांग्रेस की अल्पसंख्यकवाद की खतरनाक नीति व तुष्टीकरण्ा के प्रति देश की जनता को सजग रहने की चेतावनी दी। यात्रा में उमड़ते भीड़ से यह अंदाज लगाया जा सकता था कि यूपीए सरकार की ढुलमुल नीतियों से लोगों में कितना जबरजस्त आक्रोश का दावानाल था।
चंद्रशेखर कांग्रेस के युवा नेताओं में से एक थे। इन्होंने भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी। इन्होंने दक्षिण से उत्तर की यात्रा की थी। चन्द्रशेखर ने लोगों की गरीबी और बदहाली देखा। उस समय इनके साथ सौ से डेढ़ सौ लोग यात्रा करते थे। इस यात्रा का फायदा यह हुआ कि चंद्रशेखर का स्वास्थ्य बेहतर हो गया। इनके यात्रा का कोई ठोस व निर्धारित लक्ष्य नही था।
बाद में विनोवा भावे ने भूदान यात्रा की। देवीलाल ने किसान यात्रा की। धीरे-धीरे यात्रा एक फैशन हो गया। जयप्रकाश नारायण भी भूदान आंदोलन में विनोवा भावे के साथ थे। भूदान आंदोलन चला था। जमींन दान के आंकड़े लाखों एकड़ में आते हैं मगर सही मायने में देखा जाए तो गरीबों को हजारों एकड़ भी जमीन नही मिली। बिहार में तो बंटी जमीने भी गरीबों से वापस ले ली गई।
और धार्मिक यात्राओं को लें तो प्राचीन काल से चारों धाम की यात्राओं का महत्व हमारे शास्त्रों में वर्णित मिलता है। हर धार्मिक हिन्दू के मन में यह लालसा होती है कि वह चारों धाम बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम्, पुरी की यात्रा करे। सैकड़ों तीर्थाटन हिन्दू धर्म में है। केदारनाथ, वैष्णो देवी के दर्शन के लिए भक्तगण अपने प्राणों की तक परवाह
नही करते। आज आधुनिकता के इस दौर में धार्मिक यात्राओं का महत्व कम नही हुआ है।
प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा जाता है। वहां आज भी कुंभ मेले में इतनी भीड़ होती है कि उसे संभालना मुश्किल हो जाता है। प्रयाग का यह धार्मिक कुंभ मेला आज का नही है। यह मेला हजारों साल से लगता है। यहां करोड़ों लोग आते हैं। इस पवित्र तीर्थ में स्नान आदि करने के बाद बड़े-बड़े महात्माओं का दर्शन व प्रवचन का लाभ लेकर अपने जीवन को कृत-कृत्य करते हैं।
राजनेताओं ने धार्मिक यात्राओं के महत्व को समझा है, क्योंकि उसमे सामाजिक शत्तिा ज्यादा थी। अगर हम जैन धर्मावलंबियों को ले तो वे यात्राएं ही करते रहते हैं। उनकी अखंड यात्रा का कोई न कोई मकसद रहता है। वे जीवन का लक्ष्य यात्रा से ही हल कर लेते हैं।
और हम शंकराचार्य को हम देखें तो वे अल्पायु में ही यात्रा करते हैं। उन्हाेंने चार मठों बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, उड़ीसा, उत्तरांचल में स्थापना की। इन मठों से आज भी अध्यात्म के संदेश जन-जन को दिये जा रहे हैं। शंकराचार्य ने इन यात्राओं से शास्त्रार्थ की परंपरा डाली और घूम-घूम कर अद्वैत का संदेश दिया। अद्वैत वो संदेश था कि अगर पहाड़ की चोटी पर पहुंचना लक्ष्य है तो येनकेनप्रकारेण वहां पहुंचना है।शंकराचार्य जी जगह-जगह घूम कर अद्वैत का संदेश देते थे। शंकराचार्य का अद्वैत वो ज्ञान था जो संसार की हर प्रकार के वैचारिक मतभेद को खत्म करने की अद्भुत क्षमता रखता है। अद्वैत उपनिषदों का सार है।

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चंदन मित्रा

हमारे देश में सदियों से यात्रा की परंपरा रही है। पहले के जमाने में रेडियो, अखबार नही होते थे। इसलिए उस समय यात्रा का महत्व अधिक होता था। रामायण आदि ग्रंथों में यात्रा का विवरण मिलता है। सबसे पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने केरल से यात्रा की थी। वे केरल होते हुए श्री नगर फिर कश्मीर पहुंचे। ये ही भारत में प्रथम शंकराचार्य माने जाते हैं।भारत के संतों ने सत्य सनातन धर्म को पुन: स्थापित करने के लिए यात्रा के जरिये लोगों को हिन्दू धर्म से जोड़ा। लोगों में हिंदू धर्म के प्रति मौजूद गलत फहमियों को दूर किया। आदिगुरू शंकराचार्य ने अपनी यात्राओं में ज्ञान के प्रचार के साथ-साथ मठों की भी स्थापना की थी।
बौध्दधर्म में भी यात्रा का काफी विवरण मिलता है। गौतमबुध्द के यात्रा करने के कारण बौध्दों में यात्रा बहुत ही लोकप्रिय हो गया। गौतम बुध्द हमेशा यात्रा ही करते रहते थे, यत्र-तत्र घूम-घूम कर लोगों को अपने पवित्र ज्ञान की शिक्षा देते थे। बुध्द ने अपने यात्राओं में अष्टांग मार्ग का का प्रचार किया। जिनमें यम,नियम,आसन,प्राणायाम, प्रत्यार आदि प्रमुख थे। गौतम बुध्द ने अपनी यात्राओं में संघों की स्थापना पर जोर देते हुये व सांसारिक आसत्तिा को पूर्णरूपेण त्यागने व निर्लिप्त रहने का संदेश दिया। इस तरह महात्मा बुध्द ने समाज में बढ़ रहे अनैतिकता व अज्ञानता को अपने ज्ञान के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया।
भारत में तमाम तरह की यात्राएं तो हुई ही, विदेशों में भी यात्राओं के विवरण देखने को मिलते हैं। इनमें मोहम्मद साहब को छोड़कर बाकी सभी धर्मों के लोगों ने एक दूसरे धर्मों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। यात्रा तो ईसा मसीह ने भी किया। ईसा अपने शिष्यों के साथ गांव-गांव घूमा करते थे। पीड़ितों, दु:खियों की सेवा में वे हमेशा रत रहते थे। कोढ़ियों आदि की सेवा उन्होंने बड़ी तन्मयता से की। उनके इस सेवा का ईसाई समाज पर इतना असर पड़ा कि आज भी ईसाई धर्म में खासकर महिलाएं पूरा जीवन पीड़ितों की सेवा में लगा देती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मदर टेरेसा रही हैं। संत-महात्मा इस तरह की यात्राएं उस समय समाज में फैली गंदगियों को दूर करने के लिए करते थे।
यात्रा में अगर हम गांधी जी को लें तो वे भारत की अंतरात्मा से जुड़े थे। उन्होंने हिन्दू धर्म का बहुत गहराई से अध्ययन किया, उसकी बारीकियों को बखूबी समझा था। गांधी जी को यह भलीभांति पता था कि भारतवर्ष में सत्याग्रह, त्याग, बलिदान का आज भी महत्व है। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसका प्रयोग चंपारन से शुरू किया। महात्मा गांधी ने अन्याय और अत्याचार दूर करने के लिए अपनी जान तक की परवाह न करते हुए अनेकों बार भूख हड़तालें की । जिसके चलते वे शारीरिक रूप से अत्यधिक जर्जर हो गए। महात्मा मोहनदास करमचंद्र गांधी की दांडी यात्रा आधुनिक युग में प्रथम राजनीतिक यात्रा थी। गांधी जी ने देश के लिए एक मापदंड छोड़ा, कि कैसे देश के लोगों में यात्रा के जरिये संदेश को पहुंचाया जाय। लोगों को कैसे अपने साथ जोड़ा जाय। दुश्मनों को अपनी एकता के जरिए कैसे हिलाया जा सकता ह,ै यह पूरे विश्व के लोगों को महात्मा गांधी की यात्रा के जरिये शिक्षा मिली। गांधी जी ने अपनी यात्रा को प्रचार का माध्यम बनाकर इसका उपयोग देश की आजादी के लिए किया।
गांधी जी की यात्रा ने जब अपना रंग दिखाना शुरू किया तो न केवल अपने देश से बल्कि विदेशों के तमाम पत्रकारों व फोटोग्राफरों ने इसे महत्व दिया। जिससे गांधी की यात्रा विदेशों में भी लोकप्रिय हो गई। पूरे देश में एक प्रेरणा की लहर दौड़ पड़ी।कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के लोग एकता के सूत्र में बंध गए। जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश हुकूमत बुरी तरह भयभीत हो गई। इसके बाद फिर इस तरह की यात्राएं एक प्रकार से बंद ही हो गई।
परन्तु स्वाधीनता के पश्चात आचार्य विनोवा भावे ने भी यात्राएं की हैं।वे गांव-गांव घूमकर अमीरों को जमीन दान के लिए प्रेरित किया। कुछ समय लगा कि विनोवा जी को सफलता मिल रही है। लेकिन विनोवा जी को उनके अपनों ने ही धोखा किया। बाद में यह तय हुआ कि गरीबों,किसानों को बगैर किसी संघर्ष के जमीन को दिया जाए।
और रही पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के यात्रा की, इस तरह की यात्राएं करने से देश के बारे में ज्ञानार्जन काफी हो जाता है, साथ में देश की समस्या से रू-ब-रू होने का मौका भी मिल जाता है।
इस देश में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा को महात्मा गांधी के दांडी मार्च के बाद सबसे महत्वपूर्ण यात्रा माना जाता है। आडवाणी की यह यात्रा गुजरात के सोमनाथ मंदिर से शुरू होकर अयोध्या तक गई थी। इस यात्रा ने देश के लोगों में श्री राम लला के प्रति भक्ति प्रेम की एक ऐसी भावना फूंकी, कि पूरा देश श्री राममय हो गया था। अयोध्या मुद्दे पर पूरा देश एकता के सूत्र में बंधा नजर आया। इस यात्रा में हिन्दुत्व मुद्दे को काफी प्राथमिकता मिली। हिन्दू समाज में एक मजबूत आत्मविश्वास का उद्भव हुआ। इस यात्रा के जरिये भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ मिला।भाजपा अभी भी उसी रास्ते पर चली जा रही है। क्योंकि मूल विषय से हटकर राजनीति तो हो ही नही सकती। जिस तरह महात्मा गांधी की यात्रा अपने आप में एक ऐतिहासिक हो गई। उसी तरह आडवाणी की यात्रा राजनैतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक रूप से नयापन लाने में पूरी तरह सफल रही थी।
आडवाणी जी की दूसरी प्रमुख यात्रा स्वर्ण जयंती यात्रा थी, जो देश के स्वतंत्रता के 50वीं वर्षगांठ पर शुरू हुई। इस यात्रा में आडवानी जी देश के कोने-कोने तक गए, जिसमें अंडमान निकोबार द्वीप समूह, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र भी शामिल था। आडवाणी जी उन आदिवासी इलाकों में भी गए जहां कभी कोई नही गया था। वहां पर उन्होंने लोगों के दु:खों को जानने के बाद, उन्हें सांत्वना दिया और ढांढस बंधाया। आदिवासी लोग अपने आपको हमेशा उपेक्षित व शोषित पाते थे कोई उन्हें पूंछने वाला नही था। यद्यपि तमाम गैर सरकारी संस्थाएं आदिवासियों के मदद के लिए हैं मगर एक राष्ट्रीय स्तर का नेता उनके घर जाकर उनके दु:खों के बारे में जानने से उन्हें अपार हर्ष की अनुभूति हुई। जहां एक तरफ मुम्बई और दिल्ली के अमीर लोगों में जमीन आसमान का अंतर है। ऐसे उच्च धनाढय वर्ग के लोग गरीबों के दु:खों को महसूस नही करते थे, वहीं आडवाणी जी ने इन गरीब आदिवासियों के करीब जाकर उनके पीड़ा को बड़ी निकटता से महसूस किया व हरसंभव मदद देने का आश्वासन दिया था। क्योंकि इससे पूर्व वहां शोषित आदिवासी लोग अपने आपको देश-दुनिया से कटा हुआ पाते थे। आडवाणी जी की यह यात्रा अपने आप में ऐतिहासिक रही क्योंकि इनकी यह यात्रा सिर्फ भाजपा के लिए ही नही बल्कि पूरे भारत को एकता के सूत्र में जोड़ने में काफी हद तक सफल रहा था।
लेकिन अब यात्राओं को नया मोड़ देने की जरूरत है। शंकराचार्य के बाद महात्मा गांधी की यात्रा महत्वपूर्ण थी। फिर लालकृष्ण आडवाणी ने यात्राओं के जरिए देश को एक नया मोड़ दिया था। भारत में बड़े-बड़े नेताओं को सिर्फ लोग टीवी चैनलों व अखबारों में ही देख पाते हैं। मगर यात्रा के द्वारा देश के लोगों को इन बड़े नेताओं व संतों से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। यात्रा लोगों के मन को प्रभावित करने का सबसे बड़ा और आसान जरिया है। ये नेता या संत जब गांव-गांव जाकर हाथ जोड़कर जन-जन से मिलते हैं तो लोगों को अपार सुख का अनुभव होता है। लोग यात्रा से प्रभावित तो होते ही हैं साथ ही देश व समाज को जोड़ने के लिए ऐसी यात्राओं का बहुत भारी महत्व है।
एक अन्य प्रमुख महत्वपूर्ण प्रमुख यात्रा विश्व हिन्दू परिषद की है। यह यात्रा एकात्मक यात्रा थी, जो कि 1981 में शुरू हुई थी। शायद आडवाणी ने इसी यात्रा से प्रेरणा लेकर इसके आठ साल बाद यात्रा निकाली थी। एकात्मक यात्रा में प्रमुख रूप से दो उद्देश्य थे, पहला भारत की सारी बड़ी नदियों को जैसे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी आदि को एक दूसरे नदी में ले जाकर मिलाप कराना और दूसरा हिन्दुओं को अन्य धर्म में हो रहे मतांतरण को रोकने के साथ ही उनके उपर ढाए जा रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना था।
इससे पूर्व तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम् में कुछ दलित परिवारों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और फिर यह कहा गया कि अभी तो यह शुरूआत है, धीरे-धीरे देश के सारे दलितों को मुसलमान बनाया जाएगा। इस घटना से हिन्दू संगठनों को काफी धक्का पहुंचा, बहुत से हिन्दू मर्माहत हुए। इस घटना को ध्यान में रखते हुए विश्व हिन्दू परिषद ने नेपाल के काठमांडू से एक यात्रा निकाली जो मीनाक्षीपुरम् से कन्याकुमारी तक गई। इस यात्रा का मूल मकसद यही था कि अगर हिन्दू समाज के उपर प्रहार होता है तो उसे रोकना हमारा प्रथमर् कत्ताव्य होगा। विहिप की इस यात्रा के शुरूआती दौर में लोगों में कोई दिलचस्पी नही ली। मगर धीरे-धीरे यह यात्रा इतनी प्रचलित हुई कि मीडिया ने भी इस यात्रा को खूब कवरेज किया। यह यात्रा पूरी तरह शत्-प्रतिशत सफल रही। अगर गौर करें तो इस यात्रा के बाद इस्लाम ग्रहण की घटना फिर दोबारा नही हुई।

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कुलदीप नैयर

अगर यात्राओं की बात करें तो मेरे विचार से देश की सबसे प्रमुख यात्रा भारत छोड़ो आंदोलन थी, जिसे 1942 में महात्मा गांधी ने शुरू किया था। इस यात्रा में जयप्रकाश नारायण, जवाहर लाल नेहरू आदि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शामिल थे। भारत छोड़ो आंदोलन में गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ पूरे भारत में अंग्रेजों से लड़ने की ताकत पैदा कर दी थी। यह ताकत गांधी को सत्य और अहिंसा से मिली थी। महात्मा गांधी की एक और प्रमुख यात्रा नमक बनाने को लेकर शुरू हुई। गांधी जी का कहना था कि नमक बनाना हम भारतीयों का हक है, इसे अंग्रेज कानून बनाकर नही रोक सकते। उन्होंने नमक बनाकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी। गांधी जी समुद्र के किनारे दांडी तक अपने समर्थकों के साथ यात्रा करते हुए गए। उनकी यह यात्रा आगे चलकर दांडी मार्च के नाम से मशहूर हुई। गांधी जी पूरे देश को एक संदेश देना चाहते थे कि जो हमारा अधिकार है उसे लेने के लिए किसी भी प्रकार से अंग्रेजी हुकूमत हमें रोक नही सकती। वे जब नमक बनाने समुद्र के किनारे चले तो उसमें से बहुत से आजादी के परवानों को पीटा गया, लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी ने ब्रिटिश जुल्म के खिलाफ घुटने नही टेके। उनकी यह मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ बढ़ती ही चली गई। महात्मा गांधी का मूल लक्ष्य लोगों को जागृत करना था, इसे उन्होंने अपने यात्रा के जरिये बखूबी अंजाम दिया। दांडी यात्रा में गांधी जी ने कई सौ किलो मीटर पैदल चलकर इतिहास रचा था। गांधी जी ने सीधे तौर पर अंग्रेजों को चेतावनी दिया कि हमारे देश से जल्द से जल्द निकल जाओ। अंग्रेजों को हमारी चिंता करने की जरूरत नही, हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाय। उन्होंने अंग्रेजों से तीखे शब्दों में कहा कि द्वितीय विश्व युध्द में हमसे पूंछे बगैर युध्द की आग में भारतीयों को क्यों झोंक दिया गया।
सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के तीन बीर सेना अधिकारियों शहनवाज खान, प्रेम सहगल, जी.एस. ढिल्लन का मुकदमा लाल किले में चलना शुरू हुआ तो लोगों ने जगह-जगह अंग्रेजों के खिलाफ बड़े-बड़े जुलूस निकाले, सड़क के चौराहों पर ब्रिटिश हुकूमत के विरूध्द प्रदर्शन किया गया। इन सारे क्रांतिकारी यात्राओं का असर यह हुआ कि अंग्रेजों को इन तीनों सेना अधिकारियाें को माफ करना पड़ा। अंग्रेजों पर धीरे-धीरे दबाव पड़ा और उन्हें मजबूर होकर भारत छोड़ना पड़ा।
सन् 1946 में, समुद्री जहाज के अफसरों ने जहाजों में ही गोरों को देश से हटाने को लेकर प्रदर्शन व हड़ताल किया। उनके द्वारा यह किया जाना भी देश के स्वतंत्रता की एक कड़ी थी। 1947 में जब बंटवारा हुआ तो दोनों तरफ से कई काफिले चले। बहुत से लोगों को अपना आशियाना छोड़ना पड़ा। हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। हिन्दू-मुस्लिम दंगों में करीब दस लाख आदमी मारे गये, और दो करोंड़ आदमी बेघर हो गये। मैं स्वयं स्यालकोट से आया था। जब 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हो गया और शपथ ग्रहण की तैयारी चल रही थी लाखों लोग संसद और इंडियागेट के सामने जमा हो गए थे।
उसके बाद मुस्लिम महिलाओं के लिए सुप्रीमकोर्ट का फैसला मील का पत्थर साबित हुआ। जिसमें शाहबानो नाम की एक 60 वर्षीय वृध्द महिला को उसके पति ने तलाक दे दिया था। उसने अपने जीविकोपार्जन की खातिर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उसके पति के उपर सेक्शन 125 की धारा के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज हुआ और न्यायालय ने शरियत को नजरअंदाज करते हुए शाहबानो को गुजारा भत्ताा देने का आदेश दिया। लेकिन कठमुल्ले मुस्लिम नेताओं ने फैसले की आलोचना करते हुए न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संविधान संशोधन कर न्यायालय के आदेश को ही पलट दिया। परिणामस्वरूप शाहबानों के साथ न्याय नही हो पाया।
राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर के ताले खोल दिये। उसको लेकर हिन्दू और मुसलमानों के फासले बढ़ते गए और रही बात आडवाणी की यात्रा की तो, आडवाणी की यात्रा है तो धार्मिक लेकिन इसे राजनीतिक रूप दिया गया। उस यात्रा का मकसद था कि किसी तरह हिन्दू-मुस्लिम तनाव हो और भाजपा की झोली में हिन्दुओं का वोट चला आए। वीपी सिंह की सरकार इसी में मारी गई। बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। तब से राम मंदिर का मुद्दा राजनीतिक हो गया। चुनाव के समय राम मंदिर मुद्दे को उछाला जाता है ताकि राजनीतिक रूप से चुनाव में भाजपा को बढ़त मिले। नि:संदेह भाजपा की ताकत में इजाफा हुआ। लेकिन यह देश की ताकत नही थी बल्कि किसी पार्टी की ताकत थी जो मंदिर के नाम पर लोगों को उकसा रही थी। जहां-जहां आडवाणी की रथयात्रा गई वहां-वहां काफी सांप्रदायिक झगड़े हुए, कई लोग मारे गए। आखिरकार सांप्रदायिक शक्तियों ने बाबरी मस्जिद गिरा कर ही दम लिया। हिन्दुओं में ये भावना जरूर थी कि मंदिर बने लेकिन मस्जिद किसी कीमत पर न टूटे। कोई ऐसा हल निकल सकता था जो सर्वमान्य हो, लेकिन उससे पूर्व सारी चीजें राजनीति में विलीन हो गई।
अब यह मुद्दा देश के सामने एक ऐसा सवाल बन गया है कि जिससे केवल तनाव ही बढ़ सकता है। मंदिर बनाने की कोशिश तो हुई, मगर अजीब बात है कि इस देश में भूख, गरीबी, रूल ऑफ लॉ को लेकर कभी कोई यात्रा नही निकाली गई। पिछले कुछ महीनों से कई यात्राएं जमीन के सवाल पर, जंगल के सवाल पर निकाले गए मगर उनको अभी तक सफलता नही मिली। क्योंकि राजनीतिक पार्टियां हर सवाल को वोटों के नजरिये से देखती हैं, और आप अगर गरीबी की बात करते हैं तो इंदिरा गांधी ने कहा था कि तुम मुझे वोट दो हम तुम्हारी गरीबी दूर करेंगे। लेकिन गरीबी कम नहीं हुई बल्कि और बढ़ी। आज देश में बहुत से ऐसे गरीब हैं जो रात के समय भूखे पेट ही सो जाते हैं। देश में कितनी ऐसी माताएं हैं जो भूखे पेट ही अपने बच्चों को जन्म देती हैं।आज के युवाओं सहित व दूसरों लोगों के लिए यह एक चुनौती के समान है कि वे कब ऐसी यात्रा निकालेगें जिसका एकमात्र लक्ष्य हो कि जो गरीब भूखा है उसको रोटी मिले, जो नंगे हैं उन्हें कपड़ा मिले और जरूरतमंदों को सर छिपाने के लिए एक छत नसीब हो।
गांधी जी जब आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे तो कहा था कि किसी के आंखों में आंसू नही होने चाहिए, लेकिन अब ऐसा लगता है कि वो मंजिल दूर है तथा उसके लिए और प्रयास करने पड़ेंगे। पर राजनीतिक पार्टियों की मदद के बगैर इस लक्ष्य को नही पाया जा सकता। राजनीतिक पार्टियां गरीबों की गरीबी दूर करने में बहुत कम दिलचस्पी रखती हैं। इन पार्टियों के लिए गरीब एक वोटर मात्र है। ऐसे गरीबों को धमकाकर, फुसलाकर, रिश्वत देकर किसी भी प्रकार से उनके वोटों को हासिल कर लो। आज के राजनीतिज्ञों का यही एक धंधा है।आज राजनीतिक पार्टियों के लिए एक नैतिक रूल की जरूरत है। मेरा मतलब वसूलों और मूल्यों से है। इस देश में ये जरूर होगा मगर कब और कैसे कहना मुश्किल है

Friday, June 15, 2007


अलकायदा और ओसामाबिन लादेन ?

दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद के जरिए आतंक मचाने वाले अलकायदा संगठन की स्थापना 1988 में हुई थी। धीरे-धीरे अलकायदा ने मुस्लिम देशों से मदद लेकर अपने संगठन को काफी मजबूत कर लिया। आज कम से कम 60 देशों में अल-कायदा की गतिविधियां जारी है। शुरू में अल-कायदा ने यहूदियों, ईसाइयों के विरूध्द खूनी जंग जारी की, लेकिन बाद में अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई देशों सहित अलकायदा ने दुनिया के सभी गैरमुसलमानों को अपने निशाने पर ले लिया। आज हिन्दू बहुल वाला देश हिन्दुस्तान इसके निशाने पर है। लादेन ने भारत को कई बार सीडियां जारी करके को धमकाया है और उसकी सीडियों को हल्के तौर नही लेना चाहिए। क्योंकि ये इस्लामी आतंकवादी अपने मंसूबों को कामयाब करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। तो फिर हम संक्षिप्त रूप में अलकायदा गतिविधियों और ओसामा के जीवन के बारे में संपूर्ण रूप से जानकारी लेते हैं।
कट्टर इस्लामिक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन का पूरा नाम ओसामा बिन मोहम्मद बिन लादेन अवाद बिन लादेन है। लादेन का जन्म 10 मार्च 1957 को रियाद, सउदी अरबिया में हुआ था। खुद ओसामा ने 1988 में अलजजीरा टीवी चैनल के एक इंटरव्यु में उसने अपना जन्म 10 मार्च, 1957 बताया। उसके पिता मोहम्मद अबाद बिन लादेन धनी व्यापारी थे। लादेन के जन्म के बाद उसकी मां ने उसके पिता से तलाक ले लिया और मुहम्मद अल अता से विवाह कर लिया। ओसामा की शिक्षा-दीक्षा जेद्दा में हुई। वहां उसने इकोनॉमिक और मैनेजमेंट पढ़ा। 1974 में लादेन ने 17 वर्ष की उम्र में अपनी मां के भाई की लड़की नजवा घनीम से विवाह किया। लादेन ने करीब चार औरतों से शादी किया जिसमें एक को तलाक दिया। ओसामा को कुल 12 से 24 बच्चे हैं। उसकी पत्नी नजवा के अनुसार 11 बच्चे बिन लादेन के उसने खुद जने हैं।
ओसामा बिन लादेन की कद-काठी बड़ी लम्बी है। एफबीआई का उसके बारे में कहना है कि वह लम्बा और पतला है। वह 6 फुट 4 ईंच या 6 फुट 6 ईंच का है। यानी लगभग 193 से 198 से.मी. है। लादेन का वजन 165 पाउंड करीब 75 केजी है। वह हमेशा सफेद पगड़ी पहनता है और सउदी लिबास में रहता है।
1991 में लादेन ने सूडान को अपना अड्डा बनाया, सूडान सरकार की मदद से भारी तादाद में प्रशिक्षण शिविर बनाए। लेकिन 1996 में तालिबान के नेतृत्व में लादेन और उसके मददगार सूडान छोड़कर दोबारा अफगानिस्तान आ गए। आज भी अलकायदा के पाकिस्तान में छिपे रूप से आतंकवादी शिविर सक्रिय हैं।
लादेन का अफगान मुजाहिदीनों से गहरा संबंध रहा है। सन् 1979 में जब सोवियत सेनाओं का अफगानिस्तान में पूरी तरह आधिपत्य हो गया था, तब लादेन व उसके सहयोगियों ने अमेरिका के सहयोग से मुस्लिम गुरिल्ला मुजाहिदीनों को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया। जिससे सोवियतसंघ के अफगानिस्तान में पैर उखड़ गए। लादेन जिस संगठन का कमांडर इन चीफ था उसका पूरा नाम अल-खदमत अल कायदा था। ओसामा धनी लादेन घराने से संबंध रखता है। इसके संबंध कई इस्लामिक आतंकवादी नेताओं से है। लादेन को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए 25 मीलियन डॉलर का ईनाम अमेरिका ने रखा है, मगर आज तक वह अमेरिका के चंगुल में नही आया।
लादेन अपने जीवन में दो महत्वपूर्ण फतवे जारी कर चुका है। जिसमें पहला 1996 व दूसरा1998 में। लादेन ने 1996 में यह फतवा जारी किया था कि इस दुनिया में गैर मुसलमानो को मार डालना चाहिए। दूसरा यह कि संयुक्त राष्ट्र संघ व उसके सहयोगी देशों को इजरायल से समर्थन वापस ले लेना चाहिए। साथ में यह भी कि इस्लामी देशों में भेजी गई सेना को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वापस बुला लिया जाना चाहिए।

अगर उसके खूनी दास्तान को जाने तो यूएस दूतावास दारे सलाम तंजानिया, नैरोबी व केन्या के बम विस्फोटों में उसको संलिप्त माना गया। आज बिन लादेन अमेरिका का मोस्ट वांटेड क्रीमिनल है। और, अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 की दिल दहला देने वाली घटना के सारे सबूत लादेन की ओर इशारा कर रहे थे। इसके अतिरिक्त बहुत से विमानों के अपहरण में उसका हाथ माना जाता है। न्यूयार्क सिटी न्यूयार्क के वर्ड ट्रेड सेंटर का विनाश व पेंटागन को नुकसान पहुंचाने में उसका हाथ माना गया।

भारत को एक बार नही दर्जनों बार भारी तबाही व बम विस्फोटों के जरिये भारी नुकसान करने की धमकी मिल चुकी है। हॉल के दिनों की कुछ धमकियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है: 8 जून, 2007 को अलकायदा ने एक सीडी जारी करके भारत में भारी खून-खराबा करने की धमकी दी। 23 मई, 2007 मुम्बई स्थित जुड़वा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को बम से उड़ाए जाने की धमकी के बाद भारी सुरक्षा मुहैया कराया गया। 23 सितंबर, 2006 को खुफिया एजेंसी द्वारा जानकारी के बाद भाखड़ा बांध, नरेंद्र मोदी, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी, अटल बिहारी वाजपेयी, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की सुरक्षा में भारी वृध्दि की गई। 9 दिसंबर, 2006 को संसद पर हमले के दोषी आतंकवादी अफजल गुरू की रिहाई के लिए पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा एक विमान को अपहरण करने की धमकी मिली। जिससे एयरपोर्टो पर सुरक्षा बढ़ाई गई।
अभी हॉल में जून के दूसरे सप्ताह में एक सीडी जारी किया गया जिसमें भारत को तबाह करने की धमकी मिली है। इस सीडी की व्यापक जांच चल रही है।
























Saturday, June 9, 2007



राजनैतिक स्वार्थों के चलते नक्सल
आतंकवाद नासूर बनता जा रहा है

राजीव कुमार


नक्सलियों द्वारा विहारी मजदूरों का सामूहिक नरसंहार, रानी बोदली का सामूहिक नरसंहार की याद देशवासियों को भूला भी न था कि तब तक 29 मई 2007 को माओवादी आतंकवादियों ने घात लगाकर छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पुलिसबल के नौ कमांडरों को मार डाला। ये माओवादी हमले को अंजाम देने के पश्चात पुलिस के ढेर सारे असलहों को भी लूटा। सनद रहे कि अब ये माओवादी घात लगाकर हमले में बहुत तेज हो गए हैं। इससे पूर्व ये नक्सली रानीबोदली की घटना को घात लगाकर तब अंजाम दिया था जब पुलिस वाले शराब पीकर गहरी नीद में सो रहे थे। घात-प्रतिघात में तेज ये नक्सली हमले को इतने द्रुत-गति से अंजाम देते हैं कि सामने वाले को संभलने का मौका ही नही मिलता। अब माओवादी आतंकवादियों द्वारा रोज आए दिन एक न एक हत्या को अंजाम देना उनका क्रूरतम शगल बनता जा रहा है।

इस बार के ताजा हमले में राज्य की राजधानी से करीब 400 किमी दूर कुडुर गांव में माओवादियों से लोहा लेने पुलिस बल गए मगर हमले के लिए पहले से ही तैयार बैठे माओवादियों ने इन पुलिस वालों पर करीब 24 बारूदी सुरंगों का विस्फोट किया। साथ में बंदूकों, बमों से हमला कर नौ पुलिसकर्मियों को बर्बरता पूर्वक मार डाला।
आज नासूर बना नक्सलवाद विहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में गहरी जड़े जमा लिया है। आंध्र प्रदेश के तेलांगना क्षेत्र में तो यह समानांत सरकार चलाने का दावा करता है। इसके अतिरिक्त नक्सली अब स्वयं अपनी अदालत लगाकर लोगों को सजाए मौत देने का ऐलान करने लगे हैं। अभी हाल में करीब मई की अंतिम सप्ताह में नक्सलियों ने स्वयं भू अदालत लगाकर पारस गंझू, जारू गंझू, सूकन गंझू और पसला को घर से निकाल कर बुरी तरह से पीटा और बाद में गोलियों से भून डाला। नक्सलियों ने अपनी अदालत में आरोप लगाया कि इन चारों ने अपने समर्थक मुकेश यादव का शव गायब कर दिया, जिसके कारण चारों को मौत की सजा सुनाई जाती है।

आज परिस्थितियां अलग हैं। नक्सलियों ने अपनी रणनीति में भारी बदलाव किया है। 1990 से नक्सलियों ने अपने संगठन को अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित करना शुरू किया था। नक्सली आंदोलन में 2004 में बड़ी तब्दीली तब आई जब दो बड़े संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप का आपस में विलय हो गया और एक नए संगठन सीपीआई माओवादी का गठन हुआ और इससे इनकी ताकत में दोगुना इजाफा हो गया। इस विलय के बाद नक्सली वारदातों में भारी वृध्दि दर्ज की गई।

इस समय उल्फा करीब रोज आए दिन एक न एक घटनाओं को अंजाम दे रही है। 1979 से हो रहे खूनी हिंसा के तांडव में दोनों पक्षों के 20 हजार से ज्यादा लोग काल के गाल में समा चुके हैं। और इन गठजोड़ों के बाद नक्सलियों का गठजोड़ अब लिट्टे से भी हो चुका है। ये नक्सली लिट्टे को भारत में छिपने का ठिकाना उपलब्ध करा रहे हैं। इसके बदले में लिट्टे उन्हें खतरनाक भारी तबाही वाले हथियार बनाना सिखा रहा है। अभी हाल ही में राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर लिट्टे के समर्थन में नक्सलियों ने पूरी तरह बंद रखा। यह बंद 21 मई 2007 को सरकारी दमन विरोधी दिवस के तौर पर मनाया और इस दिन आंध्र और उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों में बंद का भी आह्वान किया। नक्सलियों द्वारा बंद के इस आह्वान से लिट्टे-नक्सल गठजोड़ की आशंका की पूरी तरह पुष्टि हो गई।

सरकार को सारे स्वार्थों को दरकिनारा करते हुए आतंकियों को पूरी शक्ति के साथ सफाया करना चाहिए। ये नक्सली गरीबों के एक तपके को बहला-फुसलाकर उनके हांथो में बंदूक थमा देते हैं। सरकार को ऐसे गरीबों के पेट का ख्याल रखना होगा। नही तो वो दिन दूर नही जब नक्सलवाद के कारण पूरा देश धू-धू करके जल उठेगा।

Wednesday, June 6, 2007

भारतीय राजनीति के शिखर पुरूष और पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ओजस्वी कवि ओर प्रखर वक्ता है। राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी उनके संवेदनशील और हृदयसपर्शी भाव कविताओं के रूप में प्रकट होते रहे। उनकी कविताओं ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई ओर पाठकों द्वारा सराही गईं। उनकी कविताओं में स्वाभिमान, देशानुराग, त्याग, बलिदान, अन्याय के प्रति विद्रोह , आस्था एवं समर्पण का भाव है।




Thursday, May 31, 2007

भारत में दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिए या बहुदलीय

भारत में दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिए या बहुदलीय। इस पर काफी विवाद है। पिछले दिनों भारतीय पक्ष पत्रिका में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी. राजा, कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर से राजीव कुमार की विस्तृत बातचीत प्रकाशित हुई, जिसके संक्षिप्त अंश इस प्रकार है :

हमारा संविधान जो कहता है उसमें पूरी आस्था है,

चाहे वह व्यवस्था दो दलीय हो या बहुदलीय

अभिषेक मनु सिंघवी


कांग्रेस पार्टी भारत के लोकतंत्र व गणतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करती है। क्योंकि इस देश में जनता का शासन है। जनता ही पांच साल बाद अपने मताधिकारों का प्रयोग कर अपनी पसंद के दल का चुनाव करती है। हमारे पार्टी का विश्वास भारत के संविधान में है, भारत के लोकतंत्र में है। संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था बनाई है हमारी पार्टी उसमें पूरी आस्था रखती है। अब वह चाहे वह दो दलीय हो या बहुदलीय व्यवस्था हो।
भारत एक ऐसे आधारभूत ढांचे पर टिका है जहां द्विदलीय पध्दति यहां की जनता को कभी पसंद नहीं आएगी। यानी यहां की जनता बहुदलीय पार्टी में ही विश्वास रखती है। क्योंकि जनता दो दल में बंधना नही चाहती है। क्योंकि वह समय आने पर अपने विकल्पों का खुलकर प्रयोग करना चाहती है। भारत के राजनीति में हम बहुदलीय का मतलब 50 या 55 पार्टी समझते हैं। बेशक बहुदलीय प्रणाली हमारे गणतंत्रात्मक शासन के लिए एक बेहतर प्रणाली है। पर इसका यह मायने नही कि कुकुरमुत्ते की तरह देश में असंख्य पार्टियां हो जाएं। इसलिए इन पार्टियों की एक सीमा रहनी चाहिए।
यह सत्य है कि इस देश की जनता बहुदलीय पध्दति में विश्वास करती है लेकिन बहुदलीय होने के एक नियम कायदे होने चाहिए। क्योंकि कम से कम पार्टी जनतंत्र के हित में है। यहां 55 के आंकड़े को कम करने का मतलब दो दल हरगिज नही है। दो दलीय राजनीति उन समाज या उन देशों में चलती है जहां समानता व एकरूपकता हो। भारत तो विविधता वाला देश है इसलिए भारत की विविधता को देखते हुए दो दलीय राजनीति उपयुक्त नही है। जिन देशों में द्विदलीय पध्दति है वहां समानता, एकरूपता है। दो दल के आ जाने से तानाशाही का विशेष तौर पर खतरा हो सकता है। जनता के पास विकल्प की कमी हो सकती है। क्योंकि उन्हें उन्ही दो दलों में से एक को चुनना अनिवार्य होता है। ऐसी स्थिति में लोग किसी तीसरे दल की उम्मीद करने लगते हैं। द्विदलीय स्थिति में जनता के अधिकारों का हनन हो सकता है। जब सत्ता के मद में दो दल तानाशाही की ओर बढ़ते हैं तब सूक्ष्म शक्तियां अपना प्रभाव दिखानी शुरू करती हैं तब छोटे दलों का प्रार्दुभाव होता है। वैसे हमारे देश में जनता का शासन है और यहां संविधान सर्वोपरि है। लेकिन बहुत से दल का मतलब सैकड़ों पार्टियों से न लिया जाए। परन्तु पचास से कम पार्टियां देश के हित में होगा। बहुदलीय व्यवस्था में ही यहां की जनता संतुष्ट हो सकती है। इसलिए हमारे संविधान के मर्मज्ञ भी यहां बहुदलीय व्यवस्था को ज्यादा तवज्जो दिये हैं। भारत में अनेंक धर्म, अनेंक जाति, अनेंक भाषा, अनेक प्रांत, अनेक बोलियां हैं। इसलिए इसकी विविधता को देखते हुए द्विदलीय व्यवस्था ठीक नही रहेगा।
केन्द्र में दो दलीय व्यवस्था ही होनी चाहिए
किसी देश में द्विदलीय या बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था काफी हद तक उस देश की सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। जैसेकि अमेरिका और इंग्लैंड में ऐसी व्यवस्था देखने को मिलती है। इन दोनों देशों में द्विदलीय व्यवस्था ही है और विश्व मंच में अपनी एक अलग स्थान बनाए हुए हैं। वैसे तो कई देशों में द्विदलीय व्यवस्था है लेकिन वे बहुत सफल नहीं हैं। जहां तक भारत की बात है तो यहां की सामाजिक संरचना इस तरह की है कि यहां द्विदलीय व्यवस्था का होना काफी मुश्किल है। जातीय आधार पर बने राज्यों में क्षेत्रीय दलों उभरने से यह स्थिति बहुदलीय व्यवस्था की ओर ही इशारा करती है। हालांकि दोनों व्यवस्थाओं की अपनी-अपनी खूबियां और खामियां हैं, लेकिन एक सर्वमांय मत की बात करें तो देश के प्रमुख राजनीतिक दलों के विचारों से भी एक राय उभर कर सामने नही आती है। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अलग-अलग राय व्यक्त करते हैं। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर का इस बारे में कहना है कि:
भारत विश्व का सबसे बड़ा गणतांत्रिक देश है। आजादी के बाद यहां भाषा के आधार पर अलग-अलग प्रांतो का भी निर्माण हुआ। यहां बहुदलीय प्रणाली की आवश्यकता है, फिर भी यहां दो प्रमुख दल जरूरी है। प्रांतो में भले बहुदलीय व्यवस्था हो लेकिन केन्द्र में द्विदलीय व्यवस्था होनी चाहिए। क्योंकि इससे न केवल शासकीय निर्णय लेने में सुविधा होती है बल्कि गठबंधन दलों के दबाब में आकर महत्वपूर्ण फैसलों को रोकना नही पड़ता। कभी-कभी कई महत्वपूर्ण विधेयक गठबंधन दलों के दबाव के कारण अधर में लटके रह जाते हैं। लेकिन जहां द्विदलीय पध्दति है वहां इस तरह की समस्या से देश को रूबरू नहीं होना पड़ता। द्विदलीय व्यवस्था में दोनों दल एक दूसरे की भूमिका क्या होनी चाहिए इस पर स्थिति एकदम स्पष्ट रहती है। द्विदलीय पध्दति में देशहित में कोई भी निर्णय लेने में देर नही होती। द्विदलीय व्यवस्था में दोनों दलों की भूमिका एकदम स्पष्ट रहती है और जनता यह तय कर सकती है कि व किसे चुने।
अगर हम भारत के अतीत के इतिहास में जाकर देखें तो कांग्रेस आजादी के आंदोलन से जुड़ी थी। और जब देश आजाद हुआ तब यहां कांग्रेस की सरकार बनी। फिर 1957 के करीब भाषाई राज्यों की मांग उठी और उसका परिणाम 1957 के नतीजों खासकर गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल आदि में इसके परिणाम देखने को मिले। धीरे-धीरे राज्यों में भाषा के आधार पर समितियां बनने लगी जिसका उदाहरण केरल व महाराष्ट्र में देखने को मिला। मिशाल के तौर पर महाराष्ट्र में इसका नामकरण संयुक्त महाराष्ट्रसमिति आदि से हुआ। धीरे-धीरे देश में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए जो ठीक नहीं थे। कांग्रेस बहुमत में तो आई लेकिन वह जनता की अपेक्षाओं पर खरी नही उतरी और लोगों के विश्वास को खो दिया, जिसके फलस्वरूप यहां की जनता बेहद आक्रोशित हो गई, जिसके परिणामस्वरूप 1967 में पहली दफा कांग्रेस 8 राज्यों में चुनाव हारी। 1975 में जब कांग्रेस ने आपात्काल लगाया, जनता के उपर भारी जुल्म ढाए जिसके चल्ते 1977 में कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा।
लेकिन तब एक स्वतंत्र दल था जो पूंजीवाद की बात करता था, तत्पश्चात एक संगठित सरकार केंद्र में बनी। धीरे-धीरे देश में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए जो ठीक नहीं थे। कांग्रेस के कारण क्षेत्रवाद तो बढ़ा ही साथ में दिल्ली के हाईकमान का पावर काफी बढ़ गया। कांग्रेस के नेता राजीव गांधी हवाई जहाज से उतर रहे थे तो बेंगल राव राजीव गांधी के पैर से जूते निकाल रहे थे। आंध्र प्रदेश के लोगों को लगा कि हम दिल्ली के गुलाम हो गए हैं। धीरे-धीरे प्रदेश, भाषा, जाति का महत्व बढ़ने लगा। लोगों को लगा कि राजनीति में हमारे जाति का एक नेता होनाा चाहिए। इससे जातिवाद व क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला और क्षेत्रीय दलों की भरमार होने लगी। एक प्रकार से भारत के राजनीति का विभाजन हो गया।
और यहां दलों की संख्या बढ़कर तीस हो गई। फिर लोगों ने दलों के बारे में यह नहीं देखा कि किस दल का कार्यक्रम क्या है, उसके विचार और मत क्या है व राष्ट्र के बारे में उस दल की सोच क्या है? बल्कि लोग यह देखने लगे कि कौन सा दल अपनी बिरादरी का है। इस तरह की जातिवादी सोच लोगों के दिलों मे घर कर गई। देश में पूरी तरह से जातिवाद हावी हो गया। कार्यक्रम में भूमिका का महत्व हो गया।
बाद में एनडीए की गठबंधन सरकार आई जो पूरी तरह सफल रही और कांग्रेस का विकल्प बनी। और रही छोट-छोटे दलों की तो पहले एक तिहाई बहुमत से कोई दल को मान्यता मिल जाती थी। लेकिन एनडीए सरकार ने ऐसे दलों की मांयता दो तिहाई बहुमत से कर दिया। अगर कोई दल टूटेगा उसे तभी मांयता मिलेगी जब वह दो तिहाई बहुमत से अपना बहुमत साबित करेगा। यह पध्दति पार्टियों की संख्या को कम करेगा। लेकिन धीरे-धीरे दो दलीय पध्दति विकसित होनी चाहिए। अमेरिका में दो दलीय पध्दति है जिससे वहां का शासन सुचारू रूप से चलता है। इसलिए भारत के शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए द्विदलीय पध्दति का विकास होना चाहिए।
दो दलीय पध्दति हमें पसंद नही
डी. राजा
हम या हमारी पार्टी दो दलीय व्यवस्था को पसंद नही करते। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां जनता का शासन है। दो दलीय व्यवस्था में एक नागनाथ एक सांपनाथ हो सकता है। साथ-साथ हम अमेरिका की तरह राष्ट्रपति प्रणाली को भी हम पसंद नही करते।
और तो और हमारे देश के संविधान निर्माता बाबा भीमराव अंबेडकर भी दो दलीय व्यवस्था को कभी भी पसंद नही किया।
आगे मेरी पार्टी की राय यह है कि भारत की सामाजिक स्थिति में दो दलीय व्यवस्था उचित नही है और न ही पार्टी ऐसी व्यवस्था को पसंद करती है। पार्टी की राय यही है कि देश के लिए बहुदलीय व्यवस्था ही ठीक है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां जनता का शासन है। जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने का पूरा अधिकार है। यह भी संभव हे कि दोनो दलों में से किसी को भी जनता पसंद न करे, ऐसी स्थिति में जनता के पास विकल्प मौजूद होने चाहिए और यह बहुदलीय व्यवस्था में ही संभव है। द्विदलीय व्यवस्था के नकारात्मक पहलू ज्यादा है, जनता के पास विकल्प सीमित हो जाते हैं। इस व्यवस्था में दोनो दल भ्रष्ट और गलत हो सकते हैं और अगर ऐसा होता है तो जनता के साथ-साथ देश को भी बर्बाद होने से कोई नहीं रोक सकता। ऐसी स्थिति में एक नागनाथ तो एक सांपनाथ वाली ही होगी। इसलिए यह जरूरी है कि देश में बहुदलीय व्यवस्था ही होनी चाहिए। इससे लोगों के पास विकल्प की कोई कभी नही होगी और वे अपने मनपसंद उम्मीदवार चुन सकते हैं।
इसके अलावा संविधान निर्माताओं ने भी स्थिति को भांपते हुए भारतीय संविधान में दो दलों की व्यवस्था को स्वीकार नही किया है। खुद भारत रत्न डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर भी द्विदलीय व्यवस्था को पसंद नही करते थे। उन्होंने भारतीय सामाजिक स्थिति को देखकर ही इस तरह का फैसला लिया होगा। अगर भारतीय संविधान में बहुदलीय व्यवस्था का प्रावधान है तो इस बारे में बहस करना अनावश्यक ही है। विश्व के कई देशों में द्विदलीय व्यवस्था ही अस्तित्व में है, लेकिन वहां समस्यायें भी कम नही हैं। पार्टी द्विदलीय व्यवस्था के साथ-साथ अमेरिका में मौजूद राष्ट्रपति शासन प्रणाली को भी पसंद नही करती है। भाकपा सामाजिक समानता की पक्षधर रही है। इसमें जनता को अपने अनुसार जीने और अपने मनपसंद प्रतिनिधि को चुनने का पूरा अधिकार है। अगर वे द्विदलीय के बजाए बहुदलीय व्यवस्था को पसंद करते हैं, उन्हें ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता है। भारत में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है।
द्विदलीय व्यवस्था में दोनो पार्टियां गलाकाट प्रतिस्पर्धा में रहती हैं। वे सत्ता पर पूरी तरह से काबिज होने के लिए रोज एक न एक हथकंडे अपनाती रहती हैं। ये दो पार्टियां जनता के दु:खों से कोई सरोकार नही रखती। उनके लिए देश के विकास का कोई मतलब नही रहता। सिर्फ सत्ता ही मूल मकसद हो जाता है। इसलिए भारत जैसे विविध संस्कृतियों, भाषाओं, धर्मों वाले देश में बहुदलीय व्यवस्था ही बेहतर है। क्योंकि दो दलों के भ्रष्ट होने की स्थिति में जनता को और दलों के चुनने का विकल्प खुला रहता है।