Thursday, February 25, 2010

वोटिंग मशीन पर प्रश्नचिह्न

चुनाव प्रक्रिया में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के माध्यम से मतदान पर बहस गरमा गई है। पिछले दिनों कुछ नागरिक संगठनों ने दिल्ली और चैन्नई में कार्यशाला का आयोजन किया। इसमें उन्होंने ऐसे अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों को आमंत्रित किया था, जो यूरोप के कुछ देशों और अमेरिका के अधिकांश प्रांतों में वोटिंग मशीन में हेराफेरी सिद्ध करने वालों में शामिल रह चुके हैं। इन विशेषज्ञों में हालैंड के कंप्यूटर हैकर रोप गोंगरिज्प, यूनिवर्सिटी आफ मिशिगन में कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर और इलेक्ट्रोनिक वोटिंग सुरक्षा के विशेषज्ञ डा. एलेक्स हाल्डरमैन और एटार्नी डा. टिल जैगर शामिल थे। रोप गोंगरिज्प ने एक टेलीविजन पर सीधे प्रसारण में वोटिंग मशीन को हैक कर दिखाया था और अपने देश में ईवीएम को प्रतिबंधित करवाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। डा. टिल जैगर ने जर्मन फेडेरल कंस्टीट्यूशनल कोर्ट में ईवीएम के खिलाफ जिरह की थी जिसके परिणामस्वरूप अदालत ने जर्मनी में इन मशीनों से मतदान पर रोक लगा दी थी।

भारत की ओर से हैदराबाद के जाने-माने हैक्टिविस्ट ने ईवीएम की भेद्यता पर अपने विचार रखे। भारत में सबसे पहले इन्होंने ही ईवीएम आधारित चुनाव प्रक्रिया की ईमानदारी के खिलाफ लाल झंडा उठाया था। गोंगरिज्प और डा. हाल्डरमैन के अनुसार इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों की निर्माण प्रक्रिया के समय, मतदान के दौरान और मतदान के पश्चात जालसाजी की जा सकती है। इसके अलावा वोटिंग के दौरान पोलिंग बूथ पर भी इनके माध्यम से धांधली संभव है। वे आश्वस्त हैं कि भारतीय ईवीएम भी जर्मनी, हालैंड या आयरलैंड में प्रयुक्त की गई मशीनों से अलग नहीं हैं, जहां इन्हें नकार दिया गया है। चुनाव में धांधली ईवीएम की नियंत्रण इकाई में ट्रोजन चिप लगाकर भी की जा सकती है। यह चिप ईवीएम स्क्रीन पर मनचाहा परिणाम दिखाएगी।

दूसरे शब्दों में, मतदाताओं की पसंद जो भी हो, नियंत्रण इकाई हैकर्स की याजना के अनुसार ही संख्या दर्शाएगी। गोंगरिज्प चुनाव में पारदर्शिता, निष्पक्षता और पुष्टिकरण के मुख्य पक्षकार हैं। उनकी तकनीकी राय के आधार पर ही जर्मनी में इलेक्ट्रोनिक मशीनों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया। उनका कहना है, 'जब मशीन के भीतर वोटों की गिनती होती है तो परिणाम की पुनर्जांच का कोई रास्ता नहीं बचता और चुनाव में पारदर्शिता खत्म हो जाती है।' पारदर्शिता के अभाव में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग जालसाजी का माध्यम बन गई हैं। कोई नहीं जानता की मशीन के अंदर क्या चल रहा है। यह ऐसा मुद्दा है जिस पर जर्मन कंस्टीट्यूशन कोर्ट ने ईवीएम मशीनों को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इसका कहना है कि संविधान चुनाव की सार्वजनिक प्रकृति पर जोर देता है और इसकी जांच के लिए तमाम जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता को रेखांकित

करता है।

इन विशेषज्ञों के इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों को एकदम खारिज करने के बावजूद ईवीएम में भारत की जनता को बेहद भरोसा है और इसकी जबरदस्त साख है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन मशीनों की अविश्वसनीयता के बारे में जनता को जागरूक करने के लिए अभियान नहीं छेड़ा गया है। हालांकि, विभिन्न दलों के नेता इन मशीनों के बारे में चौकन्ने हैं और विपक्षी दल मशीनों के माध्यम से चुनाव में धांधली का आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन ये मशीनों की गड़बड़ी साबित करने के लिए पुख्ता साक्ष्यों का सहारा नहीं ले पाए थे। हालांकि हरी प्रसाद जैसे लोग चुनाव आयोग से यह मांग कर रहे हैं कि वह उन्हें ईवीएम में गड़बड़ी की संभाव्यता साबित करने का एक मौका दें। शुरुआत में तो आयोग ने इस दिशा में आगे बढ़ने के संकेत दिए किंतु अचानक उसने पैर पीछे खींच लिए और पिछले सितंबर को हरी प्रसाद व उनके साथियों के ईवीएम मशीनों को चुनौती देने वाले प्रदर्शन पर रोक लगा दी। आयोग पीछे क्यों हटा?

दो अन्य भारतीय, ईवीएम के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले डा. सुब्रहमण्यम स्वामी और विख्यात चुनाव विश्लेषक व 'डेमोक्रेसी एट रिस्क : कैन वी ट्रस्ट आवर इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशींस' पुस्तक के रचियता जीवीएल नरसिंहा राव भी इस अभियान में कूद पड़े। इस पुस्तक में भारत, अमेरिका और यूरोप में ईवीएम मशीनों का इतिहास बताया है। राव के अनुसार, जिन राजनेताओं ने ईवीएम के प्रति शंका जताई है, उनमें भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी, उड़ीसा चुनाव में कांग्रेस की हार का दोष ईवीएम पर मढ़ने वाले केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात, जनता दल के अध्यक्ष शरद यादव, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी, तेलुगू देशम नेता चंद्रबाबू नायडु, आल इंडिया अन्ना द्रविड मुनेत्र कड़गम नेता जयललिता और पीएमके के नेता शामिल हैं।

इस सूची को देखने से एहसास होता है कि तीनों ज्ञात राष्ट्रीय गठबंधनों और विभिन्न क्षेत्रों में हर किसी के मन में ईवीएम मशीनों को लेकर शंका है। इनमें से करात चुनाव आयोग को अधिकारिक रूप से लिखित शिकायत कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि ईवीएम की विश्वसनीयता को लेकर अनेक सवाल खड़े हो चुके हैं। इनमें शामिल हैं : निर्माण स्तर पर मशीन में ट्रोजन चिप लगाने की संभावना, उत्पादन स्तर पर चिप में फेरबदल करना, तकनीकी प्रक्रिया पर चुनाव आयोग का नियंत्रण न होना और तीसरे पक्ष द्वारा जांच-पड़तान करना संभव न होना। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग को ईवीएम निर्माण का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेना चाहिए, तीसरे पक्ष द्वारा औचक निरीक्षण करने की अनुमति प्रदान करनी चाहिए और ईवीएम मशीनों का विभिन्न राज्यों में औचक स्थानांतरण करना चाहिए।

विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर राव ने निष्कर्ष निकाला है कि ईवीएम मशीनों के माध्यम से चुनाव में आठ तरह से धांधली की जा सकती है। चुनाव आयोग ने इस आधार पर इन दलीलों को गलत ठहराना चाहता है कि भारतीय ईवीएम किसी तंत्र (इंटरनेट) से जुड़ी न होकर स्वतंत्र मशीनें हैं। इसलिए ईवीएम के आपरेटिंग सिस्टम पर कोई भी जताना गलत है। जर्मनी में कंस्टीट्यूशन कोर्ट में याचिका दायर करने वाले सोफ्टवेयर इंजीनियर डा. उलरिच वीजनर इस प्रकार की दलीलों की धज्जिायां उड़ा चुके हैं। शपथपत्र में डा. स्वामी ने डा. वीजनर को उद्धृत करते हुए कहा है कि हालैंड, जर्मनी और आयरलैंड में भी ईवीएम इंटरनेट से जुड़ी न होकर स्वतंत्र मशीनें थीं। सीधी सी बात है कि जो भी इन मशीनों को खोलने और सोफ्टवेयर बदलने की पहुंच रखता है वह इनमें किसी भी प्रकार की कार्यात्मकता ला सकता है।

अगर चुनाव आयोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों का विश्वास कायम रखना चाहता है तो उसे इन विशेषज्ञों द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देना होगा। आयोग के जड़ व गैर-पारदर्शी रवैये से लगता है कि या तो उसके पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है या फिर वह कुछ छिपा रहा है।

[ए सूर्यप्रकाश: लेखक विधि मामलों के जानकार हैं]
sabhar dainik jagran

Tuesday, February 16, 2010

दिग्विजय की वोट यात्रा

26/11 के बाद विगत शनिवार को पुणे के जर्मन बेकरी रेस्त्रा में हुए आतंकी हमले में 9 लोगों की जान चली गई और 45 घायल हो गए। मृतकों में चार विदेशी महिलाएं हैं। सन 2001 के 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। इसके विपरीत भारत में यह सिलसिला थम नहीं रहा। क्यों?

क्या हम इस तथ्य से इनकार कर सकते हैं कि पुणे की यह दुखद घटना काग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की आजमगढ़ की 'तीर्थयात्रा' के कुछ दिनों बाद घटित हुई है? इस बीच समाचारपत्रों में यह चर्चा भी थी कि युवराज राहुल गाधी भी आजमगढ़ दर्शन का कार्यक्रम बना रहे हैं।

दिल्ली के जामिया नगर स्थित बटला हाउस में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ के बाद उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ देश की विभिन्न जाच एजेंसियों के निशाने पर है और खोजबीन से इस बात की पुष्टि भी हो चुकी है कि देश में आतंकवाद के तार आजमगढ़ से गहरे जुड़े हैं। पिछले कुछ वषरें में उत्तर प्रदेश, खासकर आजमगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसपास का क्षेत्र जिहादियों का गढ़ बनता जा रहा है, जो दाऊद के गुगरें से लेकर कई आतंकवादियों के सुरक्षित ठिकाने के रूप में सामने आ रहा है। किंतु बटला हाउस मुठभेड़ के बाद से ही मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी इसे फर्जी मुठभेड़ बताकर देश की सुरक्षा एजेंसियों पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। मुस्लिम वोट बैंक पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले राजनीतिक दल भी उनके साथ हैं। इस कथित मुठभेड़ के खिलाफ आजमगढ़ के कट्टरपंथियों की फौज एक पूरी ट्रेन को ही 'उलेमा एक्सप्रेस' बनाकर दिल्ली आ धमकी थी।

बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादी आजमगढ़ के संजरपुर के निवासी थे। बाद में इस गाव से कई अन्य संदिग्धों की गिरफ्तारी भी हुई। इससे पूर्व अहमदाबाद बम धमाकों के सिलसिले में आजमगढ़ के ही एक मौलाना, अबू बशर को गिरफ्तार किया गया था। बशर की गिरफ्तारी के बाद उसके घर मातमपुर्सी के लिए सपा-बसपा और काग्रेस में होड़ लग गई थी। यह होड़ बटला हाउस मुठभेड़ के बाद और तेज हुई है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों काग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ पहुंचे थे। वे कथित फर्जी मुठभेड़ में मारे गए युवकों के परिजनों से मिले और उसके बाद लखनऊ में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में यहा तक कहा कि 'न्याय में देरी, न्याय न देने के समान है।' जब सत्ताधारी दल राष्ट्रहितों की कीमत पर वोटबैंक की राजनीति करेगा तो स्वाभाविक है कि इससे सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिरेगा और राष्ट्रविरोधी शक्तियों को ताकत मिलेगी।

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी चिदंबरम आतंकवाद के खात्मे को सरकार की बड़ी प्राथमिकता बताते हैं, दूसरी ओर काग्रेस का वरिष्ठ नेता आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ पर ऐसे समय में सवाल खड़ा करता है, जब न केवल साक्ष्य, बल्कि उसी मुठभेड़ का हिस्सा रहा एक आतंकवादी पुलिस की गिरफ्त में हो और पूछताछ में मारे जाने वालों के आतंकी गतिविधियों में शामिल होने की पुष्टि कर रहा हो। क्या इस दोमुंहेपन की नीति से आतंकवाद का सामना किया जा सकता है?

लखनऊ के संवाददाता सम्मेलन में दिग्विजय सिंह ने जो कहा, उससे पलटते हुए दिल्ली में यह कहा कि वह मुठभेड़ को फर्जी बताने की स्थिति में नहीं हैं। इसके बाद भोपाल में उन्होंने अपने आजमगढ़ दौरे का स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि आजमगढ़ के कई मुस्लिम युवाओं पर चार राज्यों में पचास से अधिक मामले लादे गए हैं और इसीलिए उन्हें लगता है कि इनके निपटारे के लिए विशेष न्यायालय व सीबीआई की मदद लेनी चाहिए और उन्हें जबरन फंसाने के लिए झूठे प्रकरण नहीं लादने चाहिए। यह कैसी मानसिकता है?

पिछले दिनों पुलिस के हत्थे चढ़े शाहजाद अहमद पर दिल्ली के सीरियल बम ब्लास्ट के साथ बटला मुठभेड़ में शामिल होने का आरोप है। पूछताछ में उसने मारे गए युवाओं को अपना साथी बताया है। फिर इसके एक दिन बाद दिग्विजय उन मृतकों के परिजनों से मिलने क्यों गए? जाच एजेंसियों पर सवाल खड़ा करने वाले कठमुल्लों से मिलकर देश की कानून-व्यवस्था को लाछित क्यों किया? आजमगढ़ के कट्टरपंथी मुसलमानों को 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' और उच्च न्यायालय द्वारा की गई जाच पर भरोसा नहीं है तो अब मुठभेड़ की जाच किससे कराई जाए?

वस्तुत: आतंकवाद को लेकर काग्रेस का दोहरापन छिपा नहीं है। बटला हाउस मुठभेड़ में दो पुलिस कर्मियों की भी मौत हुई थी। अपने जवानों की शहादत को अपमानित करते हुए काग्रेस के कुछ नेता मुठभेड़ के फौरन बाद बटला हाउस पहुंचे थे, जहा मुस्लिम वोट बैंक की खातिरदारी में मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता पहले से ही विराजमान थे। सत्तासीन काग्रेस ने अपने नेताओं को आतंकवादियों का साथ देने वाले कट्टरपंथी तत्वों से दूरी बनाने का निर्देश देने की बजाए सुरक्षाकर्मियों पर सवाल खड़ा किया, जिन्होंने सभ्य समाज को लहूलुहान करने वाले दहशतगदरें को गिरफ्तार करने के लिए अपनी जान दाव पर लगा दी थी। सुरक्षाकर्मियों द्वारा मुस्लिम समाज के उत्पीड़न का आरोप समझ से परे है। न तो पुलिस और न ही सरकार ने आतंकवाद को लेकर मुस्लिम समुदाय को कठघरे में खड़ा किया है। आजमगढ़ के मुसलमानों के लिए यदि यह देश सर्वोपरि है तो उन्हें अपने समुदाय में छिपे उन भेड़ियों की तलाश करनी चाहिए, जो दहशतगदरें को पनाह देते हैं। मुंबई पर इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ, क्या वह सीमा पार कर अचानक घुस आए जिहादियों के द्वारा संभव था? मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथियों द्वारा ऐसे मददगारों को संरक्षण क्यों मिलता है? और ऐसे कट्टरपंथियों के समर्थन में पूरा समाज किस जुनून में आ खड़ा होता है? आतंकवाद के सिलसिले में जिन युवकों की गिरफ्तारी हुई है, उन पर इस देश के संविधान के अनुरूप कानूनी कार्रवाई चल रही है। हाल में कोलकाता स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमला करने वालों को लंबी सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने दंडित किया है। वषरें की सुनवाई के बाद सन 1993 में मुंबई में बम विस्फोट करने वालों में से कुछ को अब सजा सुनाई गई है, कई रिहा कर दिए गए। इस देश की कानून-व्यवस्था की निष्पक्षता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि मुंबई हमलों में जिंदा पकड़ा गया अजमल कसाब सरकारी मेहमान बना हुआ है। उसके खिलाफ वीडियो फुटेज हैं, चश्मदीद गवाह हैं, किंतु सुनवाई चल रही है। ऐसे में मुस्लिम प्रताड़ना का आरोप समझ से परे है।

मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ काग्रेस का याराना नया नहीं है। शाहबानो प्रकरण इसका ज्वलंत प्रमाण है। सच्चर और रंगनाथ आयोग के बहाने मुसलमानों की दयनीय दशा के एकमात्र उद्धारक होने का ढोंग करने वाली काग्रेस ही वस्तुत: उनके पिछड़ेपन का कसूरवार भी है। करीब साठ सालों तक देश पर काग्रेस का शासन रहा है। यह समुदाय पिछड़ा ही बना रहा। वही काग्रेस अब उनके उत्थान के लिए अलग से आरक्षण देने का झासा दे रही है। काग्रेस के लिए मुस्लिम समुदाय एक वोट बैंक से अधिक नहीं है और यह बात जागरूक मुसलमानों की समझ में आने लगी है।
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राज्यसभा सासद हैं]
साभार दैनिक जागरण